मिर्ज़ा ग़ालिब ~ हर एक बात पे & मेहरबाँ हो के * Ghalib

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है

न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा
कोई बताओ कि वो शोखे-तुंदख़ू क्या है

ये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न हमसे
वरना ख़ौफ़-ए-बदामोज़ी-ए-अदू क्या है

चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारी ज़ेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है

जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है

वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त अज़ीज़
सिवाए बादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू क्या है

पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो चार
ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है

रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
तो किस उम्मीद पे कहिये के आरज़ू क्या है

बना है शह का मुसाहिब, फिरे है इतराता
वगर्ना शहर में “ग़ालिब” की आबरू क्या है

~ मिर्ज़ा ग़ालिब (27.12.1797 – 15.2.1869)

मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूँ

ज़ोफ़ में ताना-ए-अग्यार का शिकवा क्या है
बात कुछ सर तो नहीं है कि उठा भी न सकूँ

ज़हर मिलता ही नहीं मुझ को सितमगर वर्ना
क्या क़सम है तिरे मिलने की कि खा भी न सकूँ

इस क़दर ज़ब्त कहाँ है कभी आ भी न सकूँ
सितम इतना तो न कीजे कि उठा भी न सकूँ

लग गई आग अगर घर को तो अंदेशा क्या
शो’ला-ए-दिल तो नहीं है कि बुझा भी न सकूँ

तुम न आओगे तो मरने की हैं सौ तदबीरें
मौत कुछ तुम तो नहीं हो कि बुला भी न सकूँ

हँस के बुलवाइए मिट जाएगा सब दिल का गिला
क्या तसव्वुर है तुम्हारा कि मिटा भी न सकूँ

~ मिर्ज़ा ग़ालिब (27.12.1797 – 15.2.1869)

આજે આ મહાન શાયરનો જન્મદિવસ.

અત્યંત વિખ્યાત શાયર, ઉર્દુ અને ફારસીના શાયર મિર્ઝા ગાલિબનું આખું નામ અસદ ઉલ્લાહ ખાન.

1969માં ભારતીય ટપાલ વિભાગે તેમની મૃત્યુ શતાબ્દીના અવસર પર ટપાલ ટિકિટ બહાર પાડી હતી.

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4 thoughts on “मिर्ज़ा ग़ालिब ~ हर एक बात पे & मेहरबाँ हो के * Ghalib”

  1. ग़ालिब खुद अपना परिचय देते हुए कहते हैं –
    कहते हैं कि-‘ ग़ालिब का अंदाज़े बयां ओर ‘
    दोनों शायरी अच्छी लगी। धन्यवाद।

  2. દિનેશ ડોંગરે નાદાન

    ગાલિબ એટલે ગાલિબ એનો કોઈ વિકલ્પ નથી.

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