લતા હિરાણી ~ मैं, तुम्हारी कुछ नहीं लगती

*मैं, तुम्हारी*

मैं,
तुम्हारी कुछ नहीं लगती
हाँ, मैं, तुम्हारी कुछ नहीं लगती।

गहरी सुबह की गुनगुनाहट
और इस उम्र के आसमाँ पर
उग जाता है तेरा चहेरा
मैं, जो तुम्हारी कुछ नहीं लगती।

दिन का हर पल
कच्ची कड़ी धूप का हर टुकड़ा
तेरा ही गीत सुनाता है मेरे कानों में
मैं, जो तुम्हारी कुछ नहीं लगती।

शाम होते ही
तेरी धरती बिछ जाती है मुझमें
धुंधला उजियारा कोई आवाज़ का जादू
बिखेर देता है मेरे सूने अस्तित्व में
मैं, जो तुम्हारी कुछ नहीं लगती।

दिन का आखिरी टुकड़ा
मुझे छूता नही, लपेट लेता है
जिस्म मेरा और सांसे तेरी
बस वही मैं
जो तुम्हारी कुछ नहीं लगती।

रात हल्की हवाएं चलती है
मेरा इश्क सपनों के खेतों में घूमता है
करारी मिट्टी मेरा कलेजा भर देती है
कभी खुशी कभी गम से
सच्ची,
मैं तुम्हारी कुछ नहीं लगती।

लता हिरानी

15.10.21

મારી વાર્તા ‘દરવાજો’ આ લિન્ક પર વાંચી શકશો. આભાર ~ લતા હિરાણી

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10 thoughts on “લતા હિરાણી ~ मैं, तुम्हारी कुछ नहीं लगती”

  1. હરીશ દાસાણી.મુંબઈ

    सुंदर मधुर और भावनात्मक कविता

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